Bhagavad Gita: Chapter 14, Verse 20

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् |
जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्रुते || 20||

गुणान्–प्रकृति के तीन गुण; एतान्–इन; अतीत्य-गुणातीत होना; त्रीन्–तीन; देही-देहधारी; देह-शरीर; समूद्भवान् से उत्पन्न; जन्म-जन्म; मृत्यु-मृत्युः जरा-बुढ़ापे का; दुःखैः-दुःखों से; विमुक्तः-से मुक्त; अमृतम्-दुराचार; अश्नुते–प्राप्त है।

Translation

BG 14.20: शरीर से संबद्ध माया के त्रिगुणों से मुक्त होकर जीव जन्म, मृत्यु, रोग, बुढ़ापे और दुःखों से मुक्त हो जाता है तथा अमरता प्राप्त कर लेता है।

Commentary

यदि हम गंदे कुएँ के जल का सेवन करते हैं तब हमारा पेट खराब हो जाता है। समान रूप से यदि हम तीन गुणों द्वारा प्रभावित होते हैं, तब हम उनके परिणामों को भोगते हैं। 'रोग, बुढ़ापा, मृत्यु और संसार में बार-बार जन्म लेना' ये चारों सांसारिक जीवन के मुख्य दुःख हैं। 

इन्हें देखकर सर्वप्रथम महात्मा बुद्ध ने अनुभव किया कि संसार दुःखों का घर है और तब वह दुःखों से मुक्त होने के मार्ग की खोज के लिए निकले। वेदों में मनुष्यों के लिए कई आचार संहिताएँ, सामाजिक दायित्व, कर्मकाण्ड, और नियम निर्धारित किए गए हैं। कर्तव्यों और आचार संहिता को एक साथ कर्म-धर्म या वर्णाश्रम धर्म या शारीरिक धर्म कहा जाता है। ये हमें तमोगुण और रजोगुण से ऊपर सत्त्वगुण तक उठाने में सहायता करते हैं किन्तु सत्त्वगुण तक पहुंचना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह भी बंधन का कारण है। सत्वगुण की तुलना सोने की जंजीरों से बंधे होने से की जा सकती है। हमारा लक्ष्य संसार रूपी कारागार से मुक्त होना है। 

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब हम गुणातीत हो जाते हैं तब फिर माया जीव पर हावी नहीं हो सकती और उसे बंधन में नहीं डाल सकती। इस प्रकार से आत्मा जन्म मरण के चक्कर से मुक्ति पाकर अमरता को प्राप्त करती है। वास्तव में आत्मा सदैव अमर है। किन्तु भौतिक शरीर के साथ इसकी पहचान इसे जन्म और मृत्यु के भ्रम जाल में डालकर कष्ट देती है। यह भ्रम आत्मा की सनातन प्रकृति के विरुद्ध है। इसलिए सांसारिक मोह हमारे आंतरिक अस्तित्व के लिए कष्टप्रद है क्योंकि भीतर से हम सब अमरता प्राप्त करना चाहते हैं।

Swami Mukundananda

14. गुण त्रय विभाग योग

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